नई दिल्ली:
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन नए कृषि कानूनों को वापिस लेने का ऐलान कर दिया है। 19 नवंबर को नए कृषि कानूनों को ऐतिहासिक बताने वाली मोदी सरकार ने किसान आंदोलन के करीब एक साल बाद यू-टर्न ले लिया। किसान आंदोलन की इस जंग में 730 किसानों ने अपनी जान गवा दी। जब-जब किसानों की पीड़ा असहनीय हुई है, तब-तब उन्होंने आंदोलन किये है। कृषि आन्दोलन का इतिहास बहुत पुराना है और विश्व के सभी भागों में अलग-अलग समय पर किसानों ने कृषि नीति में परिवर्तन करने के लिये आन्दोलन किये हैं ताकि उनकी दशा सुधर सके।
1859 से हुई थी भारत में किसान आंदोलन की शुरुआत
भारत में किसान आंदोलनों की शुरुआत सन् 1859 से हुई थी। अंग्रेजों की नीतियों से सबसे ज्यादा किसान प्रभावित हुए, इसलिए आजादी के पहले भी कृषि नीतियों ने किसान आंदोलनों की नींव डाली। वर्ष 1857 के सिपाही विद्रोह विफल होने के बाद विरोध का मोर्चा किसानों ने ही संभाला, क्योंकि अंग्रेजों और देशी रियासतों के सबसे बड़े आंदोलन उनके शोषण से उपजे थे। भारत में जितने भी किसान आंदोलन हुए, उनमें से ज्यादातर अंग्रेजों या फिर देश के हुक्मरानों के खिलाफ हुए और उन आंदोलनों ने शासन की चूलें तक हिला दीं। आजादी के पहले देश में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों ने भी किसानों के शोषण, उनके साथ होने वाले सरकारी अधिकारियों की ज्यादतियों का सबसे बड़ा संघर्ष, पक्षपातपूर्ण व्यवहार और किसानों के संघर्ष को प्रमुखता से प्रकाशित किया।
छापामार आंदोलन को दिया बढ़ावा
देश में आंदोलनकारी किसानों ने छापामार आंदोलन को तवज्जो दी। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को देसी रियासतों की मदद से अंग्रेजों द्वारा कुचलने के बाद विरोध की राख से किसान आंदोलन की ज्वाला धधक उठी। इन्हीं में पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चम्पारण सत्याग्रह, बारदोली सत्याग्रह और मोपला विद्रोह प्रमुख किसान आंदोलन शामिल हैं। वर्ष 1918 के दौरान गांधी के नेतृत्व में खेड़ा आंदोलन की शुरुआत की गई। ठीक इसके बाद 1922 में ‘मेड़ता बंधुओं’ (कल्याणजी तथा कुंवरजी) के सहयोग से बारदोली आंदोलन शुरू हुआ। हालांकि, इस सत्याग्रह का नेतृत्व सरदार वल्लभभाई पटेल ने किया। लेकिन, अंग्रेजी हुक्मरानों की चूलें हिलाने वाला सबसे अधिक प्रभावशाली किसानों का आंदोलन नीलहा किसानों का चंपारण सत्याग्रह रहा।
दक्कन का किसान आंदोलन
बता दें कि आजादी के पहले का किसानों का यह आंदोलन एक-दो स्थानों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि देश के कई भागों में पसर गया। दक्षिण भारत के दक्कन से फैली यह आग महाराष्ट्र के पूना एवं अहमदनगर समेत देश के कई हिस्सों में फैल गई। इसका एकमात्र कारण किसानों पर साहूकारों का शोषण था। वर्ष 1874 के दिसंबर में एक सूदखोर कालूराम ने किसान बाबा साहिब देशमुख के खिलाफ अदालत से घर की नीलामी की डिक्री प्राप्त कर ली। इस पर किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन शुरू कर दिया। इन साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन की शुरुआत वर्ष 1874 में शिरूर तालुका के करडाह गांव से हुई।
उत्तर प्रदेश में किसान का एका आंदोलन
होमरूल लीग के कार्यकताओं के प्रयास तथा मदन मोहन मालवीय के दिशा-निर्देश में फरवरी1918 में उत्तर प्रदेश में ‘किसान सभा’ का गठन किया गया। वर्ष 1919 के अंतिम दिनों में किसानों का संगठित विद्रोह खुलकर सामने आया। इस संगठन को जवाहरलाल नेहरू ने अपने सहयोग से शक्ति प्रदान की। उत्तर प्रदेश के हरदोई, बहराइच एवं सीतापुर जिलों में लगान में वृद्धि एवं उपज के रूप में लगान वसूली को लेकर अवध के किसानों ने ‘एका आंदोलन’ नामक आंदोलन चलाया।
मोपला विद्रोह
केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपला किसानों द्वारा 1920 में विद्रोह किया गया. शुरुआत में यह विद्रोह अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ था। महात्मा गांधी, शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं ने इस आंदोलन में अपना सहयोग दिया। इस आंदोलन के मुख्य नेता के रूप में अली मुसलियार उभरकर सामने आए। 1920 में इस आंदोलन ने हिन्दू-मुस्लिमों के बीच सांप्रदायिक हिंसा का रूप ले लिया और जल्द ही यह आंदोलन अंग्रेजों द्वारा कुचल दिया गया।
कूका विद्रोह
कृषि संबंधी समस्याओं के खिलाफ अंग्रेज सरकार से लड़ने के लिए बनाए गए कूका संगठन के संस्थापक भगत जवाहरमल थे। 1872 में इनके शिष्य बाबा रामसिंह ने अंग्रेजों का कड़ाई से सामना किया। बाद में उन्हें कैद कर रंगून भेज दिया गया, जहां पर 1885 में उनकी मौत हो गई।
रामोसी किसानों का आंदोलन
महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में रामोसी किसानों ने जमींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह किया। इसी तरह, आंध्रप्रदेश में सीताराम राजू के नेतृत्व में औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध यह विद्रोह हुआ, जो सन् 1879 से लेकर सन् 1920-22 तक छिटपुट ढंग से चलता रहा।
झारखंड का टाना भगत आंदोलन
विभाजित बिहार के झारखंड में भी आजादी के दौरान टाना भगत ने 1914 में आंदोलन की शुरुआत की थी. यह आंदोलन लगान की ऊंची दर तथा चौकीदारी कर के विरुद्ध था। इस आंदोलन के मुखिया जतरा टाना भगत थे, जो इस आंदोलन के साथ प्रमुखता से जुड़े थे। मुंडा या मुंडारी आंदोलन की समाप्ति के करीब 13 साल बाद टाना भगत आन्दोलन शुरू हुआ. यह ऐसा धार्मिक आंदोनलन था, जिसके राजनीतिक लक्ष्य थे। यह आदिवासी जनता को संगठित करने के लिए नए ‘पंथ’ के निर्माण से जुड़ा आंदोलन था. यह एक तरह से बिरसा मुंडा के आंदोलन का ही विस्तार था।