उत्तर प्रदेश चुनाव के नतीजे आने के बाद तमाम सवाल पूछे जा रहे हैं। क्या मायावती बीजेपी की बी टीम हैं? क्या यूपी चुनाव में बीएसपी ने बीजेपी को फायदा पहुंचाया? क्या बीएसपी के वोट बीजेपी को ट्रांसफर हुए? क्या बीएसपी की वजह से समाजवादी पार्टी की हार हुई? मगर इन सारे सवालों की जड़ मायावती की चुप्पी हो सकती है, जो पूरे चुनाव के दौरान कायम रही। ऐसा पहली बार हुआ है जब मायावती और उनकी पार्टी ने कोई चुनाव बेमन लड़ा हो। चुनाव की तारीख घोषित होने से लेकर चुनाव ख़त्म होने तक मायावती सीन में नज़र नहीं आईं।
क्या है मायावती की चुप्पी का राज़ ?
जानकारी के मुताबिक, यूपी चुनाव के दौरान जहां पीएम मोदी ने 28 रैलियां और रोड शो किए, तो वहीं मायावती सिर्फ 18 बार रैली करती हुई दिखाई पड़ीं। जबकि प्रियंका गांधी ने 209, सीएम योगी ने 203 और अखिलेश यादव ने 131 रैलियां और रोड शो किए। यहां तक कि पूरे चुनाव के दौरान मायावती सिर्फ 1 बार मीडिया के सवालों का जवाब देती हुई नजर आईं। सबसे बड़ा सवाल तो यही खड़ा होता है कि आखिर मायावती ने जनता से इतनी दूरी क्यों बनाकर रखी?
चुनाव के दौरान जब खुद मायावती से ये सवाल पूछा गया तो उन्होंने ये कहकर इसे टालने की कोशिश की कि उनके काम करने का तरीका अलग है और वो रोड शो नहीं करतीं, गली-मोहल्लों में नहीं जातीं। मायावती ने कहा कि उनकी पार्टी कैडर वाली पार्टी है, उन्होंने कोरोना के दौरान पूरे साल लखनऊ में रहकर जमीनी मेहनत की। छोटी-छोटी मीटिंग्स करके कार्यकर्ताओं को समझा।
क्या है मायावती की ऐसी हार का कारण ?
अमर उजाला के कन्सल्टिंग एडिटर विनोद अग्निहोत्री मानते हैं कि केन्द्र और राज्य सरकार की वेलफेयर स्कीमों के ज्यादातर लाभार्थी दलित और पिछड़े वर्ग से हैं और इसकी वजह से भी ये वोट शिफ्ट होता हुआ दिख रहा है। साथ ही, मायावती की निष्क्रियता की वजह से भी बीएसपी के वोटर अब विकल्प की तलाश कर रहे हैं और चंद्रशेखर रावण या बीजेपी वो विकल्प हो सकते हैं। इसके आलावा, कुछ लोग मानते हैं कि 2017 के बाद से ही मायावती की पार्टी लगातार कमजोर हो रही है। हालिया महीनों में कई बड़े नेताओं के पार्टी छोड़कर जाने का भी नुकसान मायावती को उठाना पड़ा है। मायावती के कोर वोटर छिटकने की बात को पिछले चुनावों के आंकड़ों से भी बल मिलता है।
बसपा को 2017 में 19 सीटें मिली थीं और तब उनका वोट प्रतिशत 22.20 था। 2012 में बसपा को 80 सीटें और 25.90 फीसदी वोट मिले, जबकि 2007 में 206 सीटों के साथ 30.40 फीसदी वोट हासिल हुए और 2002 में 98 सीटें और 23.10 फीसदी वोट मिले थे। लेकिन 2022 के चुनाव में बीएसपी को सिर्फ एक सीट नसीब हुई है और पार्टी को 13 फीसदी से भी कम वोट मिले हैं। जबकि, 1996 से लेकर आज तक बीएसपी को यूपी के किसी भी विधानसभा चुनाव में 19 फीसदी से कम वोट नहीं मिले थे।
वहीं, पिछले चुनाव के मुकाबले बीजेपी की सीटें भले कम हो गई हों, लेकिन उनका वोट परसेंट बढ़ा है। जिसका सीधा सा मतलब है कि पार्टी के साथ नए वोटर जुड़े हैं और जानकारों के मुताबिक इसमें ज्यादा संख्या बीएसपी से ट्रांसफर हुए वोट हैं। 2017 के चुनाव में बीजेपी को 312 सीटें मिली थीं और उनका वोट प्रतिशत 39.70 था लेकिन 2022 के चुनाव में सीटें घटकर 255 हो गईं लेकिन फिर भी पार्टी का वोट परसेंट बढ़कर 41 फीसदी से ज्यादा हो गया, जो यूपी में बीजेपी का वोट प्रतिशत के मामले में अब तक का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन है।
कहाँ गया बसपा का वोट ?
केंद्र और राज्य सरकार की जनकल्याणी योजनाओं का भी बीजेपी की जीत के पीछे बड़ा हाँथ है। जानकार मानते हैं कि कोरोना के दौरान दूसरे शहरों से लौटकर आए मजदूरों को मनरेगा के जरिए काम देना और फ्री राशन देकर बीजेपी ने एक बड़े तबके को अपनी ओर आकर्षित किया है। जो अब तक जाति के नाम पर वोट कर रहे थे, वो अब राशन के नाम पर वोट कर रहे। हालांकि, एक दलील ये भी दी जा रही है कि बीएसपी ने एसपी के वोट काटे इसलिए बीजेपी को फायदा मिला। ये सच है कि कई सीटों पर समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों की हार का अंतर बीएसपी उम्मीदवार को मिले कुल वोटों से कम है। लेकिन ये एकतरफा नहीं है, कई सीटें ऐसी भी हैं, जहां बीजेपी उम्मीदवार की हार का अंतर भी बीएसपी कैंडिडेट को मिले वोट से कम है। जबकि कुछ सीटें तो ऐसी भी हैं, जहां बीएसपी की हार का अंतर एसपी को मिले वोटों से कम है। इसलिए इस दलील का कोई खास मतलब नहीं रह जाता।
बसपा पर क्यों लग रहे भाजपा की B टीम होने के आरोप ?
कुछ जानकार ऐसा भी मानते हैं कि भाजपा और बसपा के एक साथ होने की खबर चुनाव से ठीक पहले गांव गांव तक पहुंचा दी गयी थी। पहले चरण की वोटिंग से पहले ही मायावती के एक वीडियो (जिसमें वो सपा को हारने के लिए भाजपा को वोट देने की बात कहती नज़र आ रहीं थीं) ने इस दावे को और मजबूती दे दी। वीडियो के पुराने और आधे अधूरे होने के बावजूद न तो मायवक्ति ने और न ही भाजपा की तरफ से किसीने इस पर आपत्ति जताई। आईटी सेल ने इसको और भी ज्यादा फैलाया। सुदूर गांवों में ये बात जंगल में आग की तरह फैली थी कि मायावती ने बीजेपी का समर्थन करने का फैसला लिया है।
अमित शाह का बयान – बीएसपी ने अपनी रेलिवेंसी बनाई हुई है। मैं मानता हूं कि उनको वोट आएंगे. सीट में कितना कन्वर्ट होगा, वो मालूम नहीं, लेकिन वोट आएंगे. मुसलमान भी काफी बड़ी मात्रा में जुड़ेंगे। काफी सीटों पर जुड़ेंगे।
मायावती ने अमित शाह के इस बयान का जवाब देते हुए कहा – ये उनकी महानता है कि उन्होंने सच्चाई को स्वीकार किया है। मुस्लिम समाज के लोग समाजवादी पार्टी की कार्यशैली से बहुत ज्यादा दुखी रहे हैं। मुस्लिम समाज तो उनसे वैसे ही नाराज है, तो उनको वोट कैसे दे देगा। जातिवादी मीडिया ने प्रायोजित सर्वे और लगातार निगेटिव प्रचार के माध्यम से खास तौर पर मुस्लिम समाज और बीजेपी विरोधी हिंदू समाज के लोगों को भी गुमराह करने में काफी हद तक सफल साबित हुए कि बीएसपी, बीजेपी की बी टीम है और ये पार्टी एसपी के मुकाबले कम मजबूती से लड़ रही है। जबकि सच्चाई इसके विपरीत है क्योंकि बीजेपी से बीएसपी की लड़ाई राजनीतिक के साथ-साथ सैद्धांतिक और चुनावी भी थी। लेकिन मीडिया के दुष्प्रचार के कारण बीजेपी के अति आक्रामक मुस्लिम विरोधी प्रचार से मुस्लिम समाज ने एकतरफा एसपी को वोट दे दिया। मुस्लिम वोट एसपी की तरफ जाते देखकर दलित वर्ग में से मेरे खुद के समाज को छोड़कर बाकी सभी हिंदू समाज ने अपना वोट बीजेपी को अंदर-अंदर ट्रांसफर कर दिया।
सबसे बड़ा सवाल ये है कि दलितों की राजनीति करने वाली मायावती का इस तरह वॉकओवर देना उनकी अपनी पार्टी और लोकतंत्र के लिए कितना सेहतमंद हैं। 10 साल पहले तक प्रदेश में सरकार चला रही पार्टी आज एक सीट पर सिमट चुकी है। जो निश्चित तौर पर उनके लिए चिंता की बात है। राजनीतिक जानकार उनकी रणनीति के बारे में स्पष्ट तौर पर तो कुछ नहीं बोल पा रहे, हालांकि ज्यादातर का मानना है कि मायावती किसी सोची-समझी रणनीति के तहत ही काम कर रही हैं।