बढ़ता हुआ उपभोग और उपभोक्तावाद: बाजार, खरीदार, और जलवायु संकट
प्रस्तावना
आज का युग उपभोग और उपभोक्तावाद का है। हर व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ-साथ अपनी इच्छाओं को भी पूरा करने में लगा हुआ है। यह प्रवृत्ति न केवल समाज में एक नई संस्कृति को जन्म दे रही है, बल्कि पर्यावरण पर भी भारी प्रभाव डाल रही है। उपभोग की बढ़ती आदतों ने बाजार को नई ऊंचाई दी है, लेकिन साथ ही जलवायु संकट को भी गहरा किया है।
क्या है उपभोग और उपभोक्तावाद?
उपभोग का अर्थ है किसी वस्तु या सेवा का उपयोग। जब यह आवश्यकता से अधिक और लालच के आधार पर किया जाता है, तो इसे उपभोक्तावाद कहा जाता है। यह समाज की आर्थिक प्रगति का प्रतीक तो है, लेकिन पर्यावरण और संसाधनों पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है।
उदाहरण के तौर पर, त्योहारों के समय भारत में लाखों टन इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद, कपड़े, और अन्य वस्तुएं खरीदी जाती हैं। यह बाजार की वृद्धि दिखाता है, लेकिन इन वस्तुओं को बनाने और उनके अपशिष्ट को प्रबंधित करने में पर्यावरण को जो क्षति होती है, वह चिंता का विषय है।
बाजार की भूमिका और उपभोक्तावाद का प्रोत्साहन
आज का बाजार उपभोक्तावाद को प्रोत्साहित कर रहा है। विज्ञापन, ई-कॉमर्स की सेल, और ब्रांडिंग ने उपभोक्ताओं को जरूरत से अधिक खरीदने के लिए प्रेरित किया है।
- इलेक्ट्रॉनिक्स और फैशन उद्योग: “The Hindu” की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 2023 में इलेक्ट्रॉनिक्स और फैशन उद्योग का आकार 60 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया।
- ई-कॉमर्स: फ्लिपकार्ट और अमेज़न जैसी कंपनियों ने त्योहारों के समय 2024 में 40% अधिक बिक्री दर्ज की।
- उपभोक्ताओं की मानसिकता: Indian Express की एक रिपोर्ट के मुताबिक, औसतन एक भारतीय परिवार हर साल 20% अधिक वस्तुएं खरीदता है।
वर्तमान जलवायु संकट और उपभोक्तावाद का संबंध
उपभोक्तावाद न केवल प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन करता है, बल्कि यह जलवायु संकट को भी बढ़ावा देता है।
- कार्बन उत्सर्जन: भारत में 2022 में कुल 2.88 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन हुआ। इसमें उद्योगों, परिवहन, और ऊर्जा उत्पादन का मुख्य योगदान था।
- प्लास्टिक कचरा: “The Hindu” के अनुसार, भारत हर साल 9.46 मिलियन टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न करता है, जिसमें से 40% पुनः उपयोग में नहीं आता।
- जल संकट: वस्त्र उद्योग, जो उपभोक्तावाद का बड़ा हिस्सा है, हर साल लाखों लीटर पानी बर्बाद करता है। रिपोर्ट के अनुसार, एक जोड़ी जींस बनाने में लगभग 7,000 लीटर पानी खर्च होता है।
खरीदारों की भूमिका और उनकी शक्ति
खरीदारों के क्रय निर्णय बाजार और पर्यावरण को सीधे प्रभावित करते हैं। यदि उपभोक्ता जागरूकता दिखाएं और टिकाऊ (sustainable) वस्तुओं की ओर झुकाव बढ़ाएं, तो इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
उदाहरण:
- स्थायी फैशन (Sustainable Fashion): खादी और हथकरघा उत्पाद पर्यावरण-अनुकूल विकल्प हैं।
- स्थानीय उत्पादों का समर्थन: स्वदेशी वस्तुएं पर्यावरण पर कम प्रभाव डालती हैं और स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी बढ़ावा देती हैं।
- रीसाइक्लिंग और पुनः उपयोग: इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों और प्लास्टिक उत्पादों के पुनः उपयोग से कचरे की मात्रा घटाई जा सकती है।
उपभोक्तावाद के प्रभाव
- पर्यावरणीय प्रभाव: अधिक उपभोग के कारण जंगल कट रहे हैं, प्रदूषण बढ़ रहा है, और जलवायु असंतुलन हो रहा है।
- सामाजिक प्रभाव: उपभोक्तावाद ने समाज में प्रतिस्पर्धा और भौतिकवाद को बढ़ावा दिया है। व्यक्ति वस्तुओं के माध्यम से अपनी पहचान बनाने की कोशिश करते हैं।
- आर्थिक प्रभाव: बाजार में मांग और आपूर्ति के बीच असंतुलन कभी-कभी मुद्रास्फीति को जन्म देता है।
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विकल्प और समाधान
- सतत विकास: सरकार और उद्योगों को टिकाऊ उत्पादन के लिए प्रेरित करना चाहिए।
- शिक्षा और जागरूकता: स्कूलों, कॉलेजों, और मीडिया के माध्यम से उपभोक्तावाद के प्रभावों और टिकाऊ जीवन शैली के लाभों पर शिक्षा देनी चाहिए।
- सरकार की नीतियाँ:
- प्लास्टिक उपयोग पर प्रतिबंध।
- ग्रीन टैक्स लागू करना।
- सतत विकास के लिए प्रोत्साहन।
- खरीदारों का योगदान:
- जरूरत के अनुसार ही वस्तुओं का क्रय करें।
- स्थानीय उत्पादों को प्राथमिकता दें।
- ऊर्जा और पानी की बचत के लिए कदम उठाएं।
सुझावित पुस्तकें और स्रोत, बढ़ता हुआ उपभोग और उपभोक्तावाद
- “No Logo” by Naomi Klein: उपभोक्तावाद के प्रभावों पर केंद्रित।
- “This Changes Everything” by Naomi Klein: जलवायु संकट पर आधारित।
- “The Story of Stuff” by Annie Leonard: उपभोग और इसके पर्यावरणीय प्रभावों पर आधारित।
- “The Hindu” और “Indian Express” की जलवायु और पर्यावरण पर रिपोर्ट।
- “Overshoot” by William Catton: प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन पर आधारित।
- “Ecology and Equity” by Madhav Gadgil and Ramachandra Guha
- “Silent Spring” by Rachel Carson
- “Heatwave and Inequalities” by A. Surya Prakash
बढ़ते उपभोग और उपभोक्तावाद पर आधारित प्रमुख डॉक्यूमेंट्री और एक्टिविस्ट
डॉक्यूमेंट्री फिल्में जो उपभोग और पर्यावरण पर केंद्रित हैं
- “The True Cost” (2015)
- यह डॉक्यूमेंट्री फैशन उद्योग के प्रभावों पर केंद्रित है, खासकर फास्ट फैशन के कारण पर्यावरण और श्रमिकों पर पड़ने वाले प्रभावों को दर्शाती है।
- विषय: कपड़ा उद्योग, प्लास्टिक कचरा, और जलवायु संकट।
- “Minimalism: A Documentary About the Important Things” (2016)
- उपभोक्तावाद के प्रभावों पर चर्चा करती है और कैसे साधारण जीवन शैली पर्यावरण के लिए बेहतर हो सकती है।
- “Before the Flood” (2016)
- लियोनार्डो डिकैप्रियो द्वारा निर्मित, यह डॉक्यूमेंट्री जलवायु परिवर्तन और उपभोग की आदतों के कारण पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को दिखाती है।
- “The Story of Stuff” (2007)
- यह एनिमेटेड डॉक्यूमेंट्री इस बात पर प्रकाश डालती है कि हमारी उपभोग की आदतें कैसे प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुंचा रही हैं।
- “Plastic Paradise: The Great Pacific Garbage Patch” (2013)
- प्लास्टिक के अत्यधिक उपयोग और इसके समुद्र में जमा होने के खतरनाक प्रभावों पर केंद्रित।
- “Seaspiracy” (2021)
- मछली पकड़ने के उद्योग के कारण महासागरों पर पड़ने वाले प्रभावों और पर्यावरणीय असंतुलन पर आधारित।
- “Kiss the Ground” (2020)
- यह डॉक्यूमेंट्री स्थायी कृषि और मिट्टी के संरक्षण के माध्यम से जलवायु संकट से निपटने के तरीकों पर प्रकाश डालती है।
- “Overload: America’s Toxic Love Story” (2018)
- यह मानव शरीर पर उपभोक्तावादी जीवनशैली और रसायनों के प्रभावों की जांच करती है।
भारत और विश्व के प्रमुख पर्यावरण कार्यकर्ता (Activists):
भारत में बढ़ता हुआ उपभोग और उपभोक्तावाद
- सुनिता नारायण
- संस्थान: सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (CSE)।
- योगदान: उन्होंने जलवायु संकट, जल प्रबंधन, और स्वच्छ ऊर्जा को लेकर कई अभियान चलाए।
- वंदना शिवा
- संस्थान: नवधान्य (Navdanya)।
- योगदान: जैव-विविधता और पर्यावरण संरक्षण पर केंद्रित। उन्होंने किसानों और पर्यावरण पर उपभोग आधारित अर्थव्यवस्था के प्रभावों को उजागर किया।
- मेधा पाटकर
- आंदोलन: नर्मदा बचाओ आंदोलन।
- योगदान: नदियों और प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए काम किया।
- अर्जुन ढोटे
- उन्होंने भारतीय शहरों में प्लास्टिक और कचरे को प्रबंधित करने के तरीकों पर काम किया।
- अमला रुईया
- जल संरक्षण के लिए काम कर रहीं राजस्थान में।
- उनके प्रयासों ने कई क्षेत्रों में पानी की कमी को दूर किया।
विश्व में बढ़ता हुआ उपभोग और उपभोक्तावाद
- ग्रेटा थनबर्ग (स्वीडन)
- आंदोलन: “Fridays for Future”।
- योगदान: युवाओं को जलवायु संकट के प्रति जागरूक किया और सरकारों पर कार्रवाई का दबाव बनाया।
- लियोनार्डो डिकैप्रियो (अमेरिका)
- जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता संरक्षण पर काम।
-
Leonardo DiCaprio Foundation
- बिल मैककिब्बन (अमेरिका)
- संस्थान: 350.org।
- योगदान: कार्बन उत्सर्जन और जीवाश्म ईंधन पर काम।
- जेन गुडॉल (ब्रिटेन)
- पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण के लिए प्रसिद्ध।
- प्रकृति और मानव के बीच संतुलन बनाने की वकालत करती हैं।
- नाओमी क्लेन (कनाडा)
- लेखिका और कार्यकर्ता।
- उन्होंने उपभोक्तावाद और जलवायु संकट पर “This Changes Everything” और “No Logo” जैसी पुस्तकें लिखी हैं।
भारतीय संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण आंकड़े
- प्लास्टिक उपयोग: भारत में प्रति व्यक्ति औसतन 11 किलो प्लास्टिक का उपयोग होता है।
- कार्बन उत्सर्जन: भारत 2023 में विश्व का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश है।
- जल संकट: नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, 40% भारतीय आबादी 2030 तक गंभीर जल संकट का सामना करेगी।
- ई-कचरा: भारत में 2022 में 3.2 मिलियन मीट्रिक टन ई-कचरा उत्पन्न हुआ।
उपभोक्तावाद समाज और बाजार की प्रगति का प्रतीक हो सकता है, लेकिन इसकी अति पर्यावरण और समाज के लिए खतरनाक है। जरूरत है कि उपभोक्ता और उद्योग दोनों अपने-अपने स्तर पर जिम्मेदारी निभाएं। व्यक्तिगत जागरूकता, सामूहिक प्रयास, और नीतिगत सुधार से हम न केवल उपभोक्तावाद के दुष्प्रभावों को कम कर सकते हैं, बल्कि जलवायु संकट से भी निपट सकते हैं।
संतुलित उपभोग और सतत विकास की ओर कदम बढ़ाकर ही हम भविष्य की पीढ़ियों को सुरक्षित और स्वस्थ पर्यावरण दे सकते हैं।